Friday, February 10, 2012

सुधियों की ज़ंजीरें

समय कितना निष्ठुर होता है,शेफाली!ठीक एक निरंकुश तानाशाह की तरह...निर्मोही समय हमें इस तरह जकड़ लेता है कि हम इसके गुलाम बन जाते हैं.हृदयहीन समय के कारिंदे हमारी क़तरा-क़तरा ज़िंदगी पर अधिकार जमा लेते हैं.

पिछले पच्चीस वर्षों से हम तुम जैसे दुनिया के दो अलग-अलग किनारों पर जी रहे थे...अपने अपने टापुओं में क़ैद...न कोई संवाद न कोई ख़बर...एक मुलाक़ात को तरसते.तुम्हारे पास तुम्हारी दुनिया थी और मेरे पास मेरा संसार.अपना अपना नरक या स्वर्ग भोगते हुए,हम स्मृतियों की बेड़ियों में जकड़े हुए,अपनी-अपनी जगह ज़िंदगी को बहला रहे थे.जब हमारे वर्तमान उलझे हुए हों तो सुधियाँ जीवन को उर्जा और सार्थकता देती हैं.यादों की चुभन हमें ज़िंदगी से जोड़े रखती है.

हाँ शेफाली,समय का अन्तराल हमें एक दूसरे को भूलने के लिए विवश करता रहता था,पर यादों के दरख़्त न कभी मुरझाते थे न कभी सूखते थे.सुधियों की ज़ंजीरें हमें मोहपाश में जकड़े रहती थीं.मैंने और शायद तुमने भी यह मान लिया था कि अब इस जन्म में शायद ही कभी हमारी मुलाक़ात हो पाए.हलांकि हम दोनों शायद यह भी अच्छी तरह जानते थे कि मुलाक़ात का कोई अर्थ नहीं होगा.

लेकिन समय ने अपने यातनाघर में हमारी एक मुलाक़ात को छिपाकर रखा हुआ था.समय कभी-कभी हम पर इतना मेहरबान भी हो जाता है,शेफाली कि वह हमें एक चिरप्रतीक्षित मिलन दे देता है.इस मुलाक़ात के लिए संपर्क-सूत्र बनी थी तुम्हारी भतीजी मधुलिका,जो अचानक मुझे जबलपुर में मिल गयी थी.चाय के निमंत्रण पर जब मैं उसके घर पहुंचा,तो उसके घर पर तुम्हारी तस्वीर देखकर मैं सुधियों की अंतहीन गुफा में खो गया था.तुम्हारे कई रूप मेरे मन-मस्तिष्क में उभर आये थे जो सदियों से मेरे ह्रदय में फ्रीज़ हुए पड़े थे...प्राथमिक पाठशाला की वह अत्यंत चंचल और शरारती तुम...मिडिल और हाई स्कूल की सीढ़ियां चढ़ते हुए वयःसंधि की दहलीज़ पर बाहें पसारे खड़ी तुम...कॉलेज के उन परियों से ख़ूबसूरत दिनों में,मेरे ह्रदय की वीरान घाटियों में सपनों के फूल खिलाने वाली तुम.अपने सपनों कि उड़ानों में नए क्षितिज-नयी संभावनाएं तलाशते हम-तुम और हम पर कड़े होते हमारे अपनों के पहरे.हमारी विवशताएँ,हमारा टूटना-बिखरना और घुट-घुट कर परिस्थितियों से समझौते करना.फिर स्थान परिवर्तन की वजह से हमारा बिछड़ जाना...हमारी उदासी भरी तनहाइयाँ...और पत्रों का संबल लेकर एक दूसरे को शब्दों का सहारा देना.और अंत में हमारे अपनों के द्वारा हमारे बीच रस्मों और रिश्तों की दीवार खड़ी कर देना.

हाँ शेफाली,समय की रेलगाड़ी पर सवार होकर,अकेलेपन;पीड़ा-व्यथा और छटपटाहट के स्टेशनों से होकर गुज़रते हुए,उस सफ़र ने हमसे वह सभी कुछ छीन लिया था,जिसके हम हक़दार थे.

मुझे खोया हुआ देखकरमधुलिका ने झिझकते हुए प्रश्न किया था,''प्रभात दा',आप शेफाली बुआ से कभी मिले क्यों नहीं?वे आपको बहुत याद करती हैं.''फिर उसने थोड़ा संजीदा होकर पूछा था,''प्रभात दा',बोलिए तो,हर देवदास अपनी पारो से बिछड़ क्यों जाता है?''मैंने उसके अनचाहे प्रश्न से बचने के लिए मुस्कराकर कहा था,''प्रिय नन्ही मधूलिका,तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर शरत चन्द्र बाबू से पूछकर बताऊंगा.बहरहाल,तुम अपनी बुआ का फोने नंबर दो ताकि मैं संपर्क कर सकूँ.''

मधुलिका द्वारा दिए संपर्क-सूत्र के माध्यम से इतने लम्बे अंतराल के बाद तुमसे मिलना ठीक ऐसा ही था जैसे कोई टाईम मशीन के सहारे अपने बीते हुए कल की घाटियों में उतर जाए.मिलन का वह अकेला पल हम दोनों के लिए ही अविश्वसनीय था.मैंने कॉल-बेल बजाई तो ऐसा लगा जैसे उसकी आवाज़ विगत वर्षों के विस्तार में उतरती चली गयी हो.मैं अपने ह्रदय की धडकनों को और अपनी उत्सुकता को काबू में नहीं रख पा रहा था,बस दम साधे खड़ा था.तुमने द्वार खोला तो अचानक तुम्हे सामने पाकर मैं हड़बड़ा गया था.लगा जैसे वर्तमान में पच्चीस बरस पहले की शेफाली को देख रहा हूँ.वही क़द-काठी,वही रूप-लावण्य...चेहरे पर वैसी ही शरारत भरी मुस्कान...आंखों में वही आशा भरी चमक...मन को अपने ख़मों में उलझा लेने वाली हू-ब-हू वही काली घनी केशराशि.

कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था,शेफाली.मैं कहना ही चाहता था कि समय ने तुम्हारे साथ पक्षपात किया है,शेफाली! उसने तुम्हें कहीं से भी नहीं छुआ है! पर इससे पहले ही तुम शरारत से बोल पड़ी थी,''तो एक और देवदास अपनी पारो के गांव आ ही गया?'' मैं भी उत्साह से भरकर अपने आप से बहार निकल आया था और कह गया था,''यही तो देवदास की नियति है,शेफाली! अब तो चंद्रमुखियाँ भी देवदास को घास नहीं डालती हैं.यदि कृपा कर कोई चंद्रमुखी घास डालती भी है तो पत्नी रूपी गाय उसे चर जाती है.'' सुनकर तुम खिलखिला पड़ी थी.ठीक पहले जैसी ही...बाढ़ आयी नदी कि तरह...सारे बंधन तोड़ देने वाली मुक्त हंसी.तुम्हारे पति और बेटा हमें अवाक् नज़रों से घूर रहे थे.तुम्हारी हंसी थमी तो तुम्हारे पति स्नेहपूर्वक बोले,''काश! दोनों बाल्य-बंधुओं का यह स्नेह देखने के लिए आज शरत चन्द्र जीवित होते!''

'स्नेह' मात्र एक शब्द लगा था उस पल.अर्थहीन और अनुभूति से परे.तुम्हारे उस घर में,तुम्हारे क़रीब होने का अहसास जीते हुए,मैं और तुम्हारे पति विभिन्न बहसों में उलझे रहे.तुमने बड़े जतन से खिलाया-पिलाया,जैसे वर्षों से तुम इस अवसर की प्रतीक्षा में थी.तुम्हारे पति ने भोजन की प्रशंसा करते हुए कहा था,''आपकी पारो के हाथों में सचमुच जादू है,प्रभात बाबू.'' मैंने समर्थन करते हुए कहा था,''हाँ,शेफाली के हांथों में सचमुच जादू है.बचपन में हमारी कक्षा के एक शरारती सहपाठी को इसने ज़ोरदार तमाचा मारा था.वह लड़का देखते ही देखते सुधर गया था.शेफाली,मैं परिमल की बात कर रहा हूँ.जानती हो,आज वह एक बड़ा आइ-स्पेशलिस्ट है.''

तुम्हारे घर पर वह एकाकी शाम हमारे लिए बहुत ग़मगीन हो उठी थी.तुम्हारे पति मार्केट चले गए थे और तुम्हारा बेटा सामने के ग्राउंड में अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेल रहा था.हवा में शरद ऋतु के संकेत मिलने लगे थे.हम दोनों पश्चिम में डूबते हुए सूरज को निहारते हुए सुधियों के महासागर में डूब-उतरा रहे थे.हमारे हृदयों से मानो दर्द और विरह के टुकड़े निकलकर,लाल-पीले रंग में रंगे बादलों के रूप में डूबते सूरज के इर्द-गिर्द बिखर गए थे.हम दोनों ही इतिहास के कुछ मुखर खंडहरों की तरह मौन थे और एक दूसरे के मौन में अतीत की परछाइयाँ तलाश रहे थे.

ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों,समय की अदालत में,अपनी अपनी मज़बूरियों के कटघरे में खड़े होकर,नियति के पक्ष में मूक गवाही दे रहे हों.तुम्हारे बगीचे में बैठे हुए हमारी परछाइयाँ लम्बी होते होते गुम हो गयी थीं.अँधेरा सा घिर आया था.गहरी ख़ामोशी के बीच अचानक जैसे अँधेरे का सहारा लेकर, अपने ही विरुद्ध जाते हुए भारी मन से तुमने कहा था,''मैं तुम्हे कभी भी नहीं भूल पाई,प्रभात..." सुनकर मेरे भीतर वर्षों से जमा हुआ मरुस्थल रेत-रेत होकर बिखरने लगा था.तुम्हारी उस स्वीकारोक्ति के समर्थन में मैं न जाने कितना कुछ तो कहना चाहता था,शेफाली! यही सब कुछ कि मैं भी तुम्हे कहाँ भूल पाया हूँ! मैं अपने ह्रदय के सारे कोने तुम्हारे सामने स्खलित कर देना चाहता था.मैं चाहता था कि बता दूँ तुम्हें... मैं आज भी सिर्फ़ इसलिए ज़िंदा हूँ,क्योंकि तुम आज भी ज़िंदा हो मेरे भीतर...हाँ,मैं ज़िंदा हूँ क्योंकि मेरे मन की ज़मीन पर तुम आज भी प्यार-स्नेह की बूंदें बनकर बरसती हो...हाँ,मैं ज़िंदा हूँ क्योंकि मेरे अंतर्मन के काग़ज़ पर तुम्हारी व्यथा-पीड़ा हर पल लिखती रहती है दर्द की इबारतें...और तुम आंसू बनकर निरंतर मेरी ह्रदय-सरिता में समाहित होती रहती हो. काश! मैं तुम्हारी पीड़ा को सहला पाता अपने अनचाहे स्पर्शों से...तुम्हें छूकर या तुम्हारे दोनों हाथों को अपने अभागे हाथों में लेकर...या यदि संभव होता तो तुम्हारे सर को अपने विषपायी कन्धों पर टिका कर...दे पाता तुम्हें थोड़ी सी तसल्ली…

उन पलों में बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किये अपने पराजित स्वरों में तुमने अंतिम प्रश्न किया था,''हमें हमारी ज़िंदगी क्यों नहीं मिल पाई,प्रभात?'' अन्धकार की रहस्यमयता के बीच जैसे सारी दिशाएं तुम्हारे प्रश्न को दुहराने लगी थीं.और मैंने एक अर्थहीन सी बात कह डाली थी,''शेफाली,यदि हमें हमारी ज़िंदगी मिल जाती,तो एक दूसरे के लिए यह तड़प...विरह का ऐसा ऐश्वर्य...स्नेह-सन्दर्भ की इन गहराइयों का आभास...और चाहत के शिखरों का यह अहसास कहाँ से मिलते...बोलो तो? ज़िंदगी अब भी है और तब भी होती...दो आत्माएं साथ हों या अलग-अलग,हमारी दोनों जिंदगियां तो अलग-अलग ही होतीं न?...शेफाली,न आत्माएं एकाकार हो सकती हैं न जिंदगियां...मिलना और बिछड़ना तो नियति के दो पहलू भर हैं...और इस सृष्टि में नियति ही सबसे शक्तिशाली है,सबसे प्रबल और सर्वोपरि है...इस सच्चाई को कौन झुठला सकता है?''

तुमने सोचा होगा,फिर वही झूठी फ़िलासफ़ी...फिर शब्दों का वही छल...फिर वही शब्दों के धारदार अस्त्र से भावनाओं को क्षत-विक्षत करने का दुस्साहस.शायद तुम कुछ कहना भी चाहती थी पर तुम्हारे पति वापस आ गए थे.दुविधा से बचने के लिए तुमने उन्हें मधुर झिड़की दी थी,''कहाँ चले गए थे आप? कितनी देर लगा दी आपने? आपको पाता है कि इन्हें रात की ट्रेन से जाना है,फिर भी!''

तुम्हारे दुनियादार पति ने मुस्कराते हुए कहा था,''भई, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे बाल्य-बंधु को कविताओं में रूचि है,इसलिए इनके लिए रविन्द्र नाथ टैगोर की पुस्तक 'गीतवितान' लेने चला गया था.पुस्तक यहाँ नहीं मिली तो गोल बाज़ार तक जाना पड़ा.''

रात्रि भोज के बाद मैंने चलने की इज़ाज़त मांगी,''अब इस तथाकथित देवदास को चलना चाहिए.''अपने द्वार से मुझे विदा करते समय तुमने वातावरण को उदासी से बचाना चाहा था,''जाते हुए देवदास कुछ कहेगा नहीं?'' मैंने कहा था,''बस इतना कि तुम सभी का जीवन सार्थक और सुखमय हो.''

तुम्हारे घर से चला तो आया हूँ...पर आज भी लगता है जैसे मुझे विदा करने के बाद द्वार पर तुम्हारी ऑंखें उसी तरह टिकी हुई हैं...सुधियों की एक और ज़ंजीर कि तरह...

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